ब्लॉग : नेशनल फिलॉसफर्स डे (राष्ट्रीय दार्शनिक दिवस) घोषित करने में विलंब क्यों? by विवेक ओझा

वर्ष 2016 में भारत सरकार ने यह तय किया था कि वह आदिगुरु शंकराचार्य के जन्म दिवस 11 मई को राष्ट्रीय दार्शनिक दिवस यानी नेशनल फिलॉस्फर्स डे के रूप में मनाएगी लेकिन अभी तक इसे औपचारिक रूप से घोषित नहीं किया जा सका है तो दिमाग में सवाल यह आता है कि जिस आदिगुरु शंकराचार्य की आध्यात्मिक महत्ता से पूरी दुनिया वाकिफ है , जिस आदि गुरुशंकराचार्य ने पूरे भारत को एक आध्यात्मिक सूत्र में बांधने के लिए भारत के चारों कोने एक कर दिए थे, उनके सम्मान में राष्ट्रीय दार्शनिक दिवस घोषित करने में विलंब क्यों ? अभी कुछ ही समय पहले देवभूमि उत्तराखंड में प्रधानमंत्री मोदी ने आदिगुरु शंकराचार्य की विशाल प्रतिमा का अनावरण किया था और उनके महत्व के बारे में कई अहम बातें भी कही थीं । नेशनल फिलॉस्फर्स डे घोषित करने में इतना विलंब क्यों हो रहा है इस मुद्दे पर जब मैंने हरिद्वार और ऋषिकेश के दो प्रमुख आध्यात्मिक संतो से यह बात पूछी तो उनका कहना था कि इसमें दो राय नहीं है कि आदि गुरु शंकराचार्य भारत की आध्यात्मिक संप्रभुता के प्रतीक हैं लेकिन हमारा देश ऋषि मुनियों संतो और विलक्षण प्रतिभा वाले दार्शनिकों का देश रहा है और चाहे उत्तर भारत हो, चाहे पूर्वोत्तर भारत हो, चाहे मध्य भारत हो, दक्षिण भारत हो सब जगह ऐसे महान व्यक्तित्व होते रहे हैं जिनके बारे में वहां के स्थानीय लोगों की यही आस्था रहती है कि वही सबसे महान दार्शनिक थे या आध्यात्मिक संत थे। अगर असम की बात करें तो असम यह सम्मान 15 वी शताब्दी के भक्ति आंदोलन के संत श्रीमंत शंकरदेव को देती है। उत्तर भारत में देखें तो सूरदास, कबीरदास, तुलसीदास, गुरु नानक को लोग सर्वाधिक महान मानते हैं। कुछ लोग चैतन्य महाप्रभु और रामानन्द को इस सम्मान का पात्र पाते हैं।

वहीं महाराष्ट्र के लोग मानते हैं कि महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन को तेरहवीं शताब्दी में प्रज्ज्वलित करने वाले संत ज्ञानेश्वर अथवा ज्ञानदेव जिन्होंने भगवद गीता पर एक लंबी मराठी टीका 'भावार्थ दीपिका' लिखी को महानतम माना जाना चाहिए । संत ज्ञानेश्वर को नाथ संप्रदाय में दीक्षा दी गई थी। ज्ञानेश्वरी भक्ति रहस्यवाद के अनुयायियों की अपनी आस्थाएं हैं। इसी प्रकार संत तुकाराम और नामदेव में भी लोगों की प्रबल आस्था है।

इस तरह भारत के कोने कोने से ऐसे महान दार्शनिकों की सूची में से किसी एक के नाम पर राष्ट्रीय दार्शनिक दिवस घोषित कर देना आसान कार्य नही है क्योंकि भारत आस्था बहुल देश है और यहां सबकी आस्था का ध्यान रखना पड़ता है ।

अब दूसरा सवाल सामने आता है कि क्या आदिगुरु शंकराचार्य जो भारत के आध्यात्मिक गौरव के प्रतीक हैं वो सबसे उपयुक्त चयन नहीं है राष्ट्रीय दार्शनिक दिवस मनाने के। मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि वह सर्वाधिक उपयुक्त चयन हैं क्योंकि जब भारत में कई महान संत , दार्शनिकों का जन्म भी नहीं हुआ था और उन्होंने भारतीय गौरव के लिए काम करना शुरू भी नहीं किया था तब आदिगुरु शंकराचार्य ने हिंदुत्व और सनातन धर्म की श्रेष्ठता के लिए ऐतिहासिक काम किये। आदिगुरु शंकाराचार्य को सनातन धर्म का पहला धर्म सुधारक भी कहा जाता है। मात्र 32 वर्ष के सांसारिक जीवन में आदि शंकराचार्य ने दक्षिण से लेकर उत्तर तक सैकड़ों धर्मसभाएं कर वेद ज्ञान का प्रसार किया। उनके इस कार्य के कारण ही बौद्ध धर्मावलंबियों के प्रभाव को कम कर सनातन धर्म को फिर से स्थापित किया जा सका। आदि गुरु शंकराचार्य बौद्ध धर्म को यह समझाना चाहते थे कि बौद्ध धर्म द्वारा हिंदू धर्म या सनातन का विरोध जहां जहां अंधविश्वास हैं वहां करना जायज है लेकिन हिन्दू धर्म के साथ द्वेष की भावना रखना , ईश्वर के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर देना ये कहीं से जायज़ नही है। इसलिए हिन्दू धर्म के जायज़ हक़ की सबसे सार्थक लड़ाई उन्होंने ही अपने शास्त्रार्थों , वैदिक प्रवचनों , तर्कों से लड़ी और इस स्तर का काम कोई अन्य धार्मिक संत , दार्शनिक नहीं कर पाया , इसलिए राष्ट्रीय दार्शनिक दिवस उनके नाम पर शीघ्र मनाए जाने का निर्णय लिया जाना चाहिए।

7 वर्ष का आयु में संन्यास लेने वाले शंकराचार्य ने मात्र 2 वर्ष की आयु में सारे वेदों, उपनिषद, रामायण, महाभारत को कंठस्थ कर लिया था। शंकराचार्य ऐसे संन्यासी थे जिन्होंने गृहस्थ जीवन त्यागने के बाद भी अपनी मां का अंतिम संस्कार किया। हिंदू मान्यताओं के अनुसार आदि शंकराचार्य का जन्म सन 788 में दक्षिण भारत के केरल में स्थित कालड़ी ग्राम में हुआ था। आदि शंकराचार्य ने अपने गुरू से ना सिर्फ शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया, बल्कि कम उम्र में ही उन्होंने ब्रह्मत्व का भी अनुभव कर लिया था। काशी में रहकर उन्होंने जीवन के व्यवहारिक और आध्यात्मिक पक्ष के पीछे की सत्यता को भी जाना। देशभर में धर्म और आध्‍यात्‍म के प्रसार के लिए 4 दिशाओं में चार मठों की स्‍थापना की गई। जिनका नाम है ओडिश का गोवर्धन मठ, कर्नाटक का शरदा श्रृंगेरीपीठ, गुजरात का द्वारका पीठ और उत्‍तराखंड का ज्‍योतिर्पीठ/ जोशीमठ आदि शंकराचार्य ने इन चारों मठों में सबसे योग्यतम शिष्यों को मठाधीश बनाने की परंपरा शुरु की थी, जो आज भी प्रचलित है।

श्री आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित अद्वैत वेदांत संप्रदाय नौंवी शताब्दी में बेहद लोकप्रिय हुआ। श्री आदि शंकराचार्य ने प्राचीन भारतीय उपनिषदों के सिद्धान्तों को फिर से एक बार जीवित करने का प्रयास ही नहीं किया, बल्कि ईश्वर के स्वरूप को पूरी आत्मीयता और वास्तविकता के साथ स्वीकार किया। उनका मानना था कि वे लोग जो इस मायावी संसार को वास्तविक मानते हैं और ईश्वर के स्वरूप को नकार देते हैं वह पूरी तरह अज्ञानी होते हैं। इसके बाद संन्यासी समुदाय में सुधार लाने और संपूर्ण भारत को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए उन्होंने भारत में चार मठ गोवर्धन पीठ: ऋग्वेद, शारदा पीठ: यजुर्वेद, द्वारका पीठ: साम वेद और ज्योतिर्मठ: अथर्ववेद की स्थापना की थी।

विवेक ओझा (ध्येय IAS)


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